तुर्की की साइप्रस से कैसी दुश्मनी? 50 साल पहले ईसाई देश को दिया था कौन सा जख्म

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब यूरोपीय देश साइप्रस पहुंचे तो उनका जोरदार स्वागत किया है. साइप्रस के राष्ट्रपति निकोस क्रिस्टोडोलिडेस ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से नवाजा. 23 साल में यह पहला मौका है, जब किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने साइप्रस का दौरा किया है. इससे भी बड़ी बात यह है कि साइप्रस की तुर्की के साथ लंबे समय से दुश्मनी चल रही है. और ऐसे समय में प्रधानमंत्री मोदी का वहां पहुंचना तुर्की के लिए एक कड़ा संदेश माना जा रहा है.

तुर्की और साइप्रस के बीच झगड़े की जड़ें ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भूराजनीतिक कारणों में गहरी जमी हैं. यह विवाद 1974 में हुए साइप्रस युद्ध से शुरू हुआ, जिसने इस छोटे से भूमध्यसागरीय द्वीप को दो हिस्सों में बांट दिया. साइप्रस ग्रीक और तुर्की समुदायों का साझा घर रहा है, 1960 में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से आजादी के बाद भी सांप्रदायिक तनाव से जूझता रहा.

साइप्रस में मुस्लिमों और ईसाई के बीच खूब होती थी लड़ाई

साइप्रस में ग्रीक साइप्रियट्स (ईसाई) की आबादी लगभग 80%, जबकि तुर्की साइप्रियट्स (मुस्लिम) लगभग 18% है. इन दोनों समुदायों के बीच लंबे समय से तनाव था. 1960 में आजादी के बाद, साइप्रस का संविधान दोनों समुदायों के बीच सत्ता के बंटवारे की व्यवस्था करता था. लेकिन बहुसंख्यक ग्रीक साइप्रियट्स और अल्पसंख्यक तुर्की साइप्रियट्स के बीच बार-बार सांप्रदायिक हिंसा भड़कती रही. ग्रीक लोग साइप्रस को ग्रीस के साथ मिलाने की मांग करते थे, जबकि टर्किश लोग साइप्रियट्स द्वीप के विभाजन की वकालत करते थे.

1974 में स्थिति तब और बिगड़ गई, जब ग्रीस में सैन्य तानाशाही (जुंटा) के समर्थन से ग्रीक साइप्रियट नेशनल गार्ड ने साइप्रस में तख्तापलट कर दिया. इस तख्तापलट का मकसद साइप्रस के तत्कालीन राष्ट्रपति आर्कबिशप मकारियोस तृतीय को हटाकर ग्रीस के साथ एकीकरण को बढ़ावा देना था. तुर्की ने इसे तुर्की साइप्रियट्स के लिए खतरे के रूप में देखा और तुर्की साइप्रियट्स की सुरक्षा का हवाला देते हुए 20 जुलाई 1974 को साइप्रस पर सैन्य आक्रमण शुरू कर दिया. इस ऑपरेशन को तुर्की में ‘साइप्रस शांति अभियान’ कहा गया.

तुर्की की सेना ने साइप्रस के उत्तरी हिस्से पर कब्जा कर लिया, जिसमें प्रसिद्ध पर्यटक शहर वरोशा भी शामिल था. यह शहर, जो कभी ‘मेडिटेरेनियन का मोती’ कहलाता था, तुर्की के कब्जे के बाद वीरान हो गया. तुर्की ने लगभग 35,000 सैनिकों को उत्तरी साइप्रस में तैनात किया और 1983 में इस क्षेत्र को ‘उत्तरी साइप्रस तुर्की गणराज्य’ घोषित कर दिया. हालांकि, इस स्वघोषित गणराज्य को अंतरराष्ट्रीय समुदाय में केवल तुर्की से ही मान्यता प्राप्त है, जबकि बाकी विश्व ग्रीक साइप्रियट्स के नियंत्रण वाले साइप्रस गणराज्य को ही वैध मानता है.

‘इस्लामी खलीफा’ का जख्म?

1974 के युद्ध ने साइप्रस को स्थायी रूप से दो हिस्सों में बांट दिया: दक्षिण में ग्रीक साइप्रियट्स के नियंत्रण वाला साइप्रस गणराज्य और उत्तर में तुर्की साइप्रियट्स के कंट्रोल में नॉर्थ साइप्रस. इस युद्ध में हजारों लोग मारे गए, और लाखों लोग विस्थापित हुए. ग्रीक और तुर्की साइप्रियट्स को अपने घर छोड़कर दूसरी तरफ जाना पड़ा. वरोशा जैसे शहर, जो कभी पर्यटकों से गुलजार रहते थे, आज भी भूतिया शहर बने हुए हैं. संयुक्त राष्ट्र ने इस विभाजन को हल करने की कई कोशिशें कीं, लेकिन कोई ठोस समाधान नहीं निकला.

तुर्की के इस आक्रमण को ग्रीक साइप्रियट्स और उनके समर्थक देश ‘इस्लामी विस्तारवाद’ के रूप में देखते हैं. तुर्की के तत्कालीन नेतृत्व ने इस कार्रवाई को तुर्की साइप्रियट्स की सुरक्षा और उनके अधिकारों की रक्षा के रूप में पेश किया. हालांकि, आलोचकों का मानना है कि यह तुर्की की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं का हिस्सा था. तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोगान ने हाल के वर्षों में इस विवाद को और हवा दी है. खासकर जब उन्होंने 2021 में कहा कि साइप्रस समस्या का समाधान केवल दो अलग-अलग राज्यों के मान्यता से ही संभव है. यह बयान ग्रीक साइप्रियट्स और यूरोपीय संघ के लिए एक गहरे जख्म की तरह था, क्योंकि यूरोपीय संघ साइप्रस के एकीकरण का समर्थन करता है.

भारत और साइप्रस के बीच कैसे संबंध?

भारत और साइप्रस के बीच संबंध लंबे समय से चले आ रहे हैं. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और साइप्रस के पहले राष्ट्रपति आर्कबिशप मकारियोस तृतीय ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन के जरिये इन संबंधों को मजबूत किया. 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद मकारियोस ने भारत का समर्थन किया था. वहीं 1974 में तुर्की ने जब इस पर आक्रमण किया, तब संयुक्त राष्ट्र शांति सेना की कमान भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल दीवान प्रेम चंद ने संभाली थी. इसने भारत-साइप्रस संबंधों को और गहरा किया.

भारत ने हमेशा संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों और अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत साइप्रस समस्या के समाधान का समर्थन किया है. साइप्रस ने भी भारत के परमाणु परीक्षण (1998) और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की उम्मीदवारी का समर्थन किया है.

पीएम मोदी का साइप्रस दौरा, तुर्की को संदेश

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की साइप्रस यात्रा पिछले दो दशकों में किसी भारतीय प्रधानमंत्री की पहली यात्रा है. इसे तुर्की और पाकिस्तान के लिए एक कूटनीतिक संदेश के रूप में देखा जा रहा है. यह यात्रा ऐसे समय में हो रही है, जब तुर्की ने हाल के वर्षों में पाकिस्तान के साथ अपनी नजदीकियां बढ़ाई हैं, खासकर कश्मीर मुद्दे पर और ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान. तुर्की ने पाकिस्तान को ड्रोन और सैन्य सहायता प्रदान की, जिससे भारत के साथ उसके संबंध तनावपूर्ण हो गए.

मोदी की यह यात्रा साइप्रस के राष्ट्रपति निकोस क्रिस्टोडौलाइड्स के निमंत्रण पर हो रही है. साइप्रस यूरोपीय संघ का सदस्य है और 2026 में इसकी अध्यक्षता करने वाला है. ऐसे में भारत के लिए यह देश रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है. यह यात्रा भारत को पूर्वी भूमध्य सागर में अपनी रणनीतिक पहुंच बढ़ाने का अवसर देती है, जो तुर्की के प्रभाव क्षेत्र में एक सॉफ्ट एंट्री मानी जा रही है.

साइप्रस ने हाल ही में पहलगाम आतंकी हमले की निंदा की थी और यूरोपीय संघ में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद के मुद्दे को उठाने का संकेत दिया था. यह भारत के लिए एक महत्वपूर्ण समर्थन है, खासकर जब तुर्की ने संयुक्त राष्ट्र जैसे मंचों पर कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान का साथ दिया है. मोदी की यात्रा के दौरान व्यापार, रक्षा, और ऊर्जा सहयोग जैसे क्षेत्रों में समझौतों की उम्मीद है, जो भारत-साइप्रस संबंधों को और गहरा करेगा.

Credits To Live Hindustan

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