Opinion: ओवैसी का नया ‘राष्ट्रवादी अवतार’, जिसने सैयद शहाबुद्दीन की याद दिलाई
घरेलू राजनीति में सैयद शहाबुद्दीन और असदुद्दीन ओवैसी दोनों की गिनती कट्टरपंथी और हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को उभारने वाले नेताओं में होती आई है. लेकिन 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान जिस तरह से सैयद शहाबुद्दीन ने पाकिस्तान के खिलाफ कठोर रुख अपनाया था, वैसा ही रुख इस बार के टकराव के दौरान एआईएमआईएम नेता एवं सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने भी दिखाया है और इसके लिए उन्हें भरपूर तारीफें भी मिल रही हैं. जैसा कि पाकिस्तान मामलों के वरिष्ठ विशेषज्ञ सुशांत सरीन ने उनकी सराहना करते हुए लिखा कि बीते दिनों विपक्ष के कई नेताओं, जिनमें ओवैसी भी शामिल हैं, ने एक बेहद जिम्मेदार और सच्चे राष्ट्रवादी नागरिक की भूमिका निभाई है.
पहलगाम के आतंकवादी हमले के बाद ओवैसी का एक तरह से नया अवतार सामने आया है. उन्होंने जो बयान दिए हैं और जो भाव-भंगिताएं दिखाई हैं, उसने सभी तबकों का दिल जीत लिया है. अपनी दमदार वक्तृत्व शैली के लिए मशहूर ओवैसी पाकिस्तान पर सवाल उठाते हुए उसे लगातार आड़े हाथ ले रहे हैं. उन्होंने पाकिस्तान के सहयोगी देशों, जैसे तुर्किये को भी नहीं बख्शा. इराक और सीरिया में कुर्द उग्रवादियों पर तुर्किये की बमबारी का जिक्र करते हुए उन्होंने तल्ख लफ्जों में कहा, ‘…उससे (तुर्किये) यह पूछा जाना चाहिए कि जब वो विदेशी जमीन पर आतंकियों को मार सकता है, तो भारत पर सवाल उठाने का उसे क्या हक है?’
सर्वदलीय बैठक में ओवैसी ने नरेंद्र मोदी सरकार की तारीफ करते हुए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से द रेजिस्टेंस फ्रंट (टीआरएफ), जो लश्कर-ए-तैयबा का ही एक संगठन है और जिसने पहलगाम हमले की जिम्मेदारी ली थी, के खिलाफ एक वैश्विक अभियान चलाने का सुझाव दिया. उन्होंने मीडिया से बातचीत में कहा, ‘मैंने हमारे सशस्त्र बलों और सरकार को ऑपरेशन सिंदूर चलाने के लिए बधाई दी. मैंने सुझाव दिया कि हमें टीआरएफ के खिलाफ एक अंतरराष्ट्रीय अभियान चलाना चाहिए. हमें संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और अमेरिका से इसे आतंकवादी संगठन घोषित करवाना चाहिए. फरवरी में हाफिज अब्दुर रऊफ ने पीओके में भाषण दिया था कि हम इस साल जिहाद करना चाहते हैं. वे जिहाद के नाम पर केवल हत्याएं करना चाहते हैं और आतंक फैलाना चाहते हैं. पाकिस्तान को एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट में डालना चाहिए.’
ओवैसी ने ऑपरेशन सिंदूर के खिलाफ पाकिस्तान द्वारा चलाए गए अभियान का नाम ‘बुनयान-अल-मरसूस’ रखे जाने पर भी उसकी जमकर खिंचाई की. उन्होंने अपनी पार्टी की एक मीटिंग में कहा, ‘पाकिस्तान ने अपने नए ऑपरेशन का नाम ‘बुनयान-अल-मरसूस’ रखा है. यह कुरआन शरीफ की एक आयत से लिया गया है, जिसमें अल्लाह कहता है कि अगर तुम अल्लाह से मोहब्बत करते हो तो एक मजबूत दीवार की तरह खड़े हो जाओ. लेकिन पाकिस्तान की फौज और हुकूमत झूठी है. इसी आयत के पहले अल्लाह यह भी कहता है कि तुम ऐसी बातें क्यों कहते हो जिन पर खुद अमल नहीं करते हो.’ ओवैसी के मुताबिक, ये (पाकिस्तानी) इतने झूठे हैं कि कुरआन के मकसद को ही समझना नहीं चाहते. ओवैसी ने पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) का जिक्र करते हुए यह भी कहा कि क्या उन्हें वह वक्त याद नहीं, जब उन्होंने ईस्ट पाकिस्तान में बंगाली मुसलमानों पर गोलियां चलाई थीं. क्या तब वे दीवार की तरह खड़े थे?
शहाबुद्दीन की याद दिला दी…
ओवैसी का यह साफ और दमदार रवैया 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान सैयद शहाबुद्दीन द्वारा इसी तरह के रवैये की याद दिलाता है. उस वक्त शहाबुद्दीन भारतीय विदेश सेवा में एक राजनयिक थे.
1971 में शहाबुद्दीन बांग्लादेश के निर्माण के प्रबल समर्थक बन गए थे. उनके अनुसार, 1971 भारतीय मुस्लिम राजनीति के लिए एक निर्णायक वर्ष था. शहाबुद्दीन ने लिखा, ‘1971 के बाद पहली बार भारतीय मुसलमानों ने महसूस किया कि पाकिस्तान उनके लिए कोई उम्मीद नहीं है, कोई भविष्य नहीं है, बल्कि खुद उसका भी कोई भविष्य नहीं है. भारत के मुसलमान पहले भी समझते थे और आज भी समझ रहे हैं कि उनकी आकांक्षाओं की पूर्ति केवल अपने देश भारत में ही हो सकती है.’ उन्होंने आगे लिखा, ‘यह एहसास भारतीय मुसलमानों को न केवल सही रास्ते पर लेकर आया, बल्कि उन्हें अपने हालात का डटकर सामना करने का साहस और संकल्प भी दिया.’
शहाबुद्दीन के मुताबिक बांग्लादेश के निर्माण ने भारतीय मुस्लिमों को भारतीय राजनीति में भूमिका निभाने के लिए प्रेरित किया. 1971 के पहले भारतीय मुसलमान शायद ही अपनी बात खुलकर कहते थे, लेकिन इसके बाद वे भी मुखरता से अपने विचार रखने लगे और उन्होंने अपनी शिकायतों को स्वर देना भी शुरू कर दिया. वे मुख्यधारा से जुड़ने लगे.
बांग्लादेश के निर्माण के लिए चल रहे संघर्ष के दौरान शहाबुद्दीन ने यथासंभव अपनी जिम्मेदारी से कहीं अधिक काम किया. उस समय वे वेनेजुएला में भारत के चार्ज डी अफेयर्स (प्रभारी राजदूत) के रूप में सेवा दे रहे थे. उनके कार्यों की सराहना की गई. उन्हें विदेश मंत्रालय की ओर से एक पत्र भी मिला, जिसमें कहा गया था कि लैटिन अमेरिका में स्थित भारत के चार पुराने दूतावासों ने बांग्लादेश की मुक्ति के लिए उतना काम नहीं किया, जितना शहाबुद्दीन ने अकेले किया. उन्होंने स्पैनिश भाषा धाराप्रवाह बोलना भी सीख लिया था और वेनेजुएला में समाज के सभी वर्गों के साथ वे सतत संपर्क में थे.
1969 में वेनेजुएला में जब भारतीय दूतावास की स्थापना हुई, तो उस वक्त शहाबुद्दीन को वहां का पहला भारतीय राजनयिक प्रतिनिधि बनाया गया. चूंकि वे उतने वरिष्ठ पद पर नहीं थे कि उन्हें राजदूत बनाया जाता, इसलिए उन्हें ‘चार्ज डी अफेयर्स’ नियुक्त किया गया. 1971 में उन्होंने तीन बार वेनेजुएला की संसद (नेशनल कांग्रेस) से बांग्लादेश के निर्माण के समर्थन में प्रस्ताव पारित करवाए. उन्होंने इस मुहिम का समर्थन देने के लिए कैथोलिक चर्च को भी राजी किया. मजदूर संगठनों से भी समर्थन हासिल किया. बकौल शहाबुद्दीन, ‘1972 में जब मैं वेनेजुएला छोड़ रहा था, तब वहां के एकमात्र अंग्रेजी अखबार ‘द डेली जर्नल’ ने एक संपादकीय लिखा, जिसमें मुझे ‘बांग्लादेश का मानद राजदूत’ कहा गया.’
Credits To Live Hindustan