क्या सीमा लांघी कोर्ट ने, जिस पर उपराष्ट्रपति हुए खफ़ा, क्या कहता है संविधान

उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ इस बात पर खफा हैं कि सुप्रीम कोर्ट कैसे राष्ट्रपति को दिशानिर्देश दे सकता है, वो ऐसा करके अपनी सीमा लांघ रहा है. शीर्ष संवैधानिक पद पर होने के बावजूद अपनी नाराजगी उन्होंने जिस तरह सार्वजनिक मंच से न्यायपालिका और सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ जाहिर की, उससे बहुत से लोग हतप्रभ हैं. ये सवाल उठा रहे हैं कि क्या धनखड़ ऐसा कर सकते हैं या उन्हें ऐसा करना चाहिए था. साथ ही ये भी देखना होगा कि क्या संविधान सुप्रीम कोर्ट को ऐसा करने की इजाजत देता है.

गौरतलब है कि उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट पर ये तल्ख टिप्पणी की कि सुप्रीम कोर्ट भला कैसे राष्ट्रपति को दिशानिर्देश दे सकता है. वो ऐसा करके सीमा लांघ रहा है.

टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादकीय में सुप्रीम कोर्ट पर उपराष्ट्रपति की टिप्पणी को उनके संवैधानिक पद के अधिकार और शिष्टाचार के विपरीत बताया है. ये लिखा है

” सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ उन्होंने जो कहा वह शायद अब तक का सबसे खेदजनक था. उपराष्ट्रपति की नाराजगी का तात्कालिक कारण सुप्रीम कोर्ट के राज्यपालों का फैसला था. उन्होंने शीर्ष अदालत को “सुपर संसद” बताया.”

टाइम्स लिखता है, “इससे भी बदतर ये रहा कि उपराष्ट्रपति ने कहा कि न्यायाधीशों की बिल्कुल कोई जवाबदेही नहीं है क्योंकि देश का कानून उन पर लागू नहीं होता”. उन्होंने ये सभी टिप्पणियां राज्यसभा इंटर्नशिप कार्यक्रम के समापन समारोह में कीं, जो वास्तव में बहुत हैरान करने वाली हैं.”

इस संपादकीय में ये कहा गया कि धनखड़ ने गुरुवार को अनुच्छेद 145(3) में संशोधन के लिए भी जोर दिया, जो संवैधानिक कानून के सवालों पर फैसला करने वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंचों की संरचना से संबंधित है. यह असाधारण है. यहां एक संवैधानिक पदधारी संवैधानिक प्रावधान की आलोचना कर रहा है जो परिभाषित करता है कि देश की शीर्ष संवैधानिक अदालत को अपने मुख्य काम कैसे करना चाहिए. आखिर में अखबार ने ये अपने संपादकीय आलेख को इस लाइन के साथ खत्म किया, “धनखड़ ने भारत के उपराष्ट्रपति के रूप में बोलते हुए गुरुवार को जिस तरह की बात कही, वह दुर्भाग्यपूर्ण है.”

अब हम ये देखेंगे कि अगर सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक तौर पर राष्ट्रपति या राज्यपालों को कोई दिशानिर्देश दे रहा हो तो क्या ये संविधान से परे जाता है.

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उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने 17 जुलाई को अपने संबोधन में न्यायपालिका की आलोचना की. फोटो Sansad TV)

क्या सुप्रीम कोर्ट के पास राष्ट्रपति के कामों की समीक्षा का अधिकार है
हां, भारत में न्यायालय, विशेष रूप से सर्वोच्च न्यायालय, के पास संवैधानिक मामलों में राष्ट्रपति के कार्यों की समीक्षा करने और उन पर टिप्पणी करने का अधिकार है, क्योंकि भारत में संविधान सर्वोच्च है और सभी संस्थाएं, जिसमें राष्ट्रपति भी शामिल हैं, संविधान के दायरे में कार्य करती हैं. हालांकि, यह अधिकार कुछ सीमाओं के साथ आता है, क्योंकि राष्ट्रपति के कुछ काम (जैसे अनुच्छेद 356 के तहत आपातकाल लागू करना) संवैधानिक प्रावधानों के तहत मंत्रिपरिषद की सलाह पर किए जाते हैं. इनकी न्यायिक समीक्षा सीमित हो सकती है.

क्या हैं न्यायपालिका के अधिकार और आधार
सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 13, 32, और 136 के तहत यह अधिकार प्राप्त है कि वह किसी भी कार्यकारी या विधायी कार्रवाई की संवैधानिक वैधता की समीक्षा कर सकता है. यदि राष्ट्रपति का कोई काम संविधान के विपरीत पाया जाता है, तो न्यायालय उस पर टिप्पणी कर सकता है या उसे रद्द कर सकता है.

क्या ऐसा हुआ है कभी
एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) – इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति द्वारा राज्य में आपातकाल लागू करने के निर्णय की समीक्षा की. न्यायालय ने साफ कर दिया कि राष्ट्रपति के ये आदेश पूरी तरह से मंत्रिपरिषद की सलाह पर आधारित होने के बावजूद यदि मनमाना या असंवैधानिक हैं, तो उनकी न्यायिक समीक्षा हो सकती है. (स्रोत: AIR 1994 SC 1918)

रमेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ (2006) – बिहार विधानसभा भंग करने के राष्ट्रपति के निर्णय की समीक्षा में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति के कामों की जांच हो सकती है यदि वे “असंवैधानिक” या “दुरुपयोग” पर आधारित हों. (स्रोत: AIR 2006 SC 980)

क्या राष्ट्रपति के काम समीक्षा के दायरे में आते हैं
राष्ट्रपति के कुछ काम, जैसे संवैधानिक क्षमादान (अनुच्छेद 72) या व्यक्तिगत विवेक पर आधारित निर्णय, बहुत सीमित दायरे में ही समीक्षा के दायरे में आते हैं. कीनन बनाम भारत संघ (1985) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि क्षमादान जैसे कामो की समीक्षा केवल तभी हो सकती है, यदि वे पूरी तरह से असंवैधानिक या मनमाने हों. (स्रोत: AIR 1985 SC 1495)

इस सोर्स में AIR का फुल फॉर्म All India Reporter है. यह भारत में एक प्रसिद्ध कानूनी पत्रिका है जो सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों के महत्वपूर्ण निर्णयों को प्रकाशित करती है. इसमें प्रकाशित निर्णयों का हवाला (citation) कानूनी दस्तावेजों और न्यायिक प्रक्रियाओं में उपयोग किया जाता है.

इस पूरी बात का निहितार्थ क्या है
सर्वोच्च न्यायालय के पास राष्ट्रपति के अधिकारों पर टिप्पणी करने का अधिकार है, विशेष रूप से जब उनके काम संविधान का उल्लंघन करते हों या मनमाने ढंग से किए गए हों. हालांकि, यह समीक्षा संवैधानिक ढांचे और न्यायिक मर्यादाओं के भीतर ही होती है.

सोर्स – (संविधान के अनुच्छेद 13, 32, 136, 356, 72. एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (AIR 1994 SC 1918), रमेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ (AIR 2006 SC 980), कीनन बनाम भारत संघ (AIR 1985 SC 1495)

Credits To Live Hindustan

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