जनरल आस‍िम मुनीर और टू-नेशन थ्योरी… एक पुरानी जहरीली सोच की वापसी

हसन सुरूर
आइडियोलॉजिकल बेतुकापन की अगर कोई मिसाल है तो वह है टू-नेशन थ्योरी, जिसके आधार पर भारत का विभाजन इस बेहूदा दावे के तहत किया गया कि मुसलमान और हिंदू एक साथ नहीं रह सकते क्योंकि वे अपनी आस्था के आधार पर दो अलग और मेल न खाने वाली राष्ट्रीयताएं हैं.

75 साल से भी अधिक वक्त तक जब यह माना गया कि यह थ्योरी कब की मर चुकी है, पाकिस्तान ने हाल ही में इसे फिर से जिंदा कर लिया है ताकि भारत-विरोधी गतिविधियों को जायज़ ठहराया जा सके, जो दोनों देशों को हाल ही में पूर्ण युद्ध के मुहाने तक ले गईं.

यह संयोग नहीं है कि 22 अप्रैल को हुए पहलगाम आतंकी हमले से कुछ दिन पहले, जिसमें पाकिस्तान-समर्थित आतंकियों ने 26 हिंदू तीर्थयात्रियों को गोलियों से भून दिया, पाकिस्तान सेना प्रमुख जनरल असीम मुनीर ने टू-नेशन थ्योरी का बेहूदा और उकसाने वाला हवाला देते हुए कहा कि हिंदू और मुसलमान अलग-अलग राष्ट्र हैं और पाकिस्तान मिलिट्री अकैडमी के कैडेट्स से कहा कि वे पाकिस्तान की कहानी अपने बच्चों को सुनाएं.

उनकी भड़काऊ बातें यूं ही नहीं थीं. अब पीछे मुड़कर देखने पर साफ होता है कि यह कोई कोडेड संकेत नहीं, बल्कि साफ-साफ इशारा था कि भारत-विरोधी तत्व हरकत में आएं.

और वे हरकत में आ भी गए.

पहलगाम हत्याकांड के बाद मुनीर ने फिर से उसी मुद्दे को छेड़ा मानो अपने ‘लड़कों’ को शाबाशी दे रहे हों. उन्होंने कहा कि टू-नेशन थ्योरी “इस बुनियादी विश्वास पर आधारित है कि मुसलमान और हिंदू दो अलग-अलग राष्ट्र हैं, एक नहीं”.

“हमारा धर्म अलग है, हमारी रीतियां अलग हैं, हमारी परंपराएं अलग हैं, हमारी सोच अलग है, हमारी आकांक्षाएं अलग हैं. यहीं से टू-नेशन थ्योरी की नींव रखी गई. हम दो राष्ट्र हैं, हम एक राष्ट्र नहीं हैं,” उन्होंने कहा, और पाकिस्तान की जनता को ‘हिंदू भारत’ के खिलाफ लामबंद करने की कोशिश की.

भारत से खतरे का पुराना राग अलापते हुए उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा: “हमारे पूर्वजों ने इस देश को बनाने के लिए अपार बलिदान दिए हैं, और हमने भी बहुत कुछ कुर्बान किया है, और हम जानते हैं कि इसे कैसे बचाना है.”

और अगर किसी ने उनका ‘उपदेश’ मिस कर दिया हो तो उन्होंने जोड़ा: “मेरे प्यारे भाइयों, बहनों, बेटों और बेटियों, कृपया पाकिस्तान की कहानी मत भूलिए और इसे अगली पीढ़ी को जरूर सुनाइए ताकि उनका अपने मुल्क से रिश्ता कभी कमजोर न हो.”

मुनीर की इस उन्मादी बयानबाज़ी की भारत में राजनीति के तमाम तबकों से तीखी प्रतिक्रिया आई. भारत सरकार ने भी इसकी कड़ी निंदा की और कहा कि यह हिंदू और मुसलमानों के बीच फूट डालने की कोशिश है.

मीडिया रिपोर्ट्स में अज्ञात “शीर्ष आधिकारिक सूत्रों” के हवाले से कहा गया कि उनका बयान “भारत के खिलाफ एक संयुक्त मुस्लिम मोर्चा बनाने, कट्टरपंथियों और आतंकवादियों को हमलों के लिए उकसाने” के मकसद से दिया गया था.

जनरल मुनीर की कोशिश को मोहम्मद अली जिन्ना और ज़िया-उल-हक़ की वैचारिक विरासत के वारिस की तरह खुद को पेश करने की कोशिश के रूप में देखा गया. “जिन्ना और ज़िया के वारिस बनने की कोशिश में, मुनीर पाकिस्तान की उस सोच को फिर से जिंदा कर रहे हैं जो अब पाकिस्तान की जनता की सेवा नहीं करती और देश को एक अंधाधुंध युद्धोन्मादी सैन्य छावनी में बदल रही है,” भारत के पूर्व पाकिस्तान उच्चायुक्त अजय बिसारिया ने लिखा.

मगर इस सबके बीच एक “हाथी कमरे में खड़ा है” जिसे कोई नोटिस नहीं कर रहा — शायद इसलिए कि इससे उस उदार और रोमांटिक सोच को झटका लग सकता है जो भारत को बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक समाज मानती है, जहां हर कोई खुशी-खुशी साथ रहता है.

कभी मैं भी इस उजले सपने में यकीन करता था और हमारी साझा गंगा-जमुनी तहज़ीब का हवाला देते नहीं थकता था — एक साझा सांस्कृतिक धरोहर जो हिंदू और मुस्लिम सांस्कृतिक तत्वों का मेल थी, जिसमें भाषा, कला, संगीत, साहित्य और सामाजिक व्यवहार तक शामिल थे.

इस तहजीब की कुछ झलकियां अब भी दिख जाती हैं, लेकिन वह पुरानी पीढ़ी जो इसे जीती थी अब धीरे-धीरे खत्म हो रही है. और उसी के साथ, धार्मिक और सांस्कृतिक पहचानें दोनों ओर सख्त होती जा रही हैं, जिससे एक हिंदुत्व बनाम शरीयत की लड़ाई जन्म ले रही है.

इसका नतीजा है कि हिंदू-मुस्लिम रिश्ते अब एक मोड़ पर खड़े हैं. यह कोई अचानक हुई घटना नहीं है और न ही पूरी तरह कुछ सिरफिरे लोगों की करतूत है. यह याद रखना जरूरी है कि बीते 75 सालों में ज्यादातर समय भारत में सेक्युलर कांग्रेस पार्टी ही सत्तारूढ़ रही है और सामुदायिक संबंधों की ज़िम्मेदारी उसी के पास थी.

इसलिए, ज्यादातर नुकसान उसी के दौर में हुआ, हालांकि यह बात भी सही है कि हाल के वर्षों में दोनों समुदायों के बीच अविश्वास तेजी से बढ़ा है और अब हालत ये है कि वे मुश्किल से एक-दूसरे से बात भी करते हैं.

एक-दूसरे पर उंगलियां उठाना आसान है, लेकिन असली समस्या इससे कहीं गहरी है. और यही वह “हाथी” है जिसका ज़िक्र ऊपर किया गया था.

हकीकत यह है कि हिंदू और मुसलमान धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से अलग-अलग दुनिया में रहते हैं, हालांकि इसका यह मतलब नहीं कि वे एक ही छत के नीचे नहीं रह सकते — कुछ समय-समय पर होने वाली टकराहटों के बावजूद.

1937 में हिंदू महासभा के अहमदाबाद अधिवेशन में वी. डी. सावरकर ने कहा था: “भारत में दो विरोधी राष्ट्र एक साथ रह रहे हैं. भारत को आज एक एकीकृत और एकरूप राष्ट्र मानना गलत है. इसके विपरीत, यहां दो प्रमुख राष्ट्र हैं — हिंदू और मुसलमान.”

बाद में जब 1940 के दशक में जिन्ना ने यह विचार रखा कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं जिनकी धार्मिक, दार्शनिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक परंपराएं अलग हैं, तो सावरकर ने इसका समर्थन किया.

15 अगस्त 1943 को नागपुर में दिए गए एक भाषण में उन्होंने कहा: “मुझे जिन्ना की टू-नेशन थ्योरी से कोई आपत्ति नहीं है. हम हिंदू अपने आप में एक राष्ट्र हैं और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिंदू और मुसलमान दो राष्ट्र हैं.”

यहां तक कि डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने भी अपनी किताब ‘पाकिस्तान, ऑर द पार्टिशन ऑफ इंडिया’ (1945) में हिंदू-मुस्लिम तनावों के “ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक कारणों” को स्वीकार किया था. उन्होंने लिखा कि अगर हिंदू और मुसलमान अलग-अलग राष्ट्र हैं तो यह मानना कि वे एक ही राज्य में साथ रह सकते हैं, “एक खोखला उपदेश, एक पागलपन भरी कल्पना है जिसे कोई समझदार व्यक्ति स्वीकार नहीं करेगा”.

अहमदिया मुस्लिम जमात ने भी जिन्ना और उनकी टू-नेशन थ्योरी का समर्थन किया था. दरअसल, अहमदिया नेता चौधरी जफरुल्ला खान ने ही वह लाहौर प्रस्ताव ड्राफ्ट किया था जिसमें पाकिस्तान की मांग की गई थी. कितनी विडंबना है कि आज उन्हें पाकिस्तान में मुसलमान नहीं माना जाता और वे उत्पीड़न झेलते हैं.

इससे स्पष्ट है कि उस दौर में हिंदू-मुस्लिम सांस्कृतिक टकराव को लेकर कहीं ज्यादा खुली, भले ही अनिच्छुक, स्वीकार्यता थी बनिस्बत आज के समय के जब उदार विचारधारा वाले इसकी चर्चा से भी कतराते हैं.

जो बात वास्तव में धर्मगुरुओं और राजनेताओं को चिंतित करनी चाहिए वह यह है कि टू-नेशन थ्योरी अब भी दोनों पक्षों के कट्टरपंथी तबकों में भावनात्मक अपील रखती है.

और यही वह छिपा हुआ भाव था जिसे जनरल मुनीर भुनाना चाहते थे. और जहां उन्होंने अपने देश के मुस्लिम चरमपंथियों को प्रेरित करने में सफलता पाई और उसका नतीजा पहलगाम हमला रहा, वहीं भारत में हिंदू-मुस्लिम विभाजन को गहरा करने में वे नाकाम रहे.

बल्कि उल्टा हुआ — दोनों समुदाय एक ऐसे साझा दुश्मन के खिलाफ एकजुट हो गए जो अब भी दकियानूसी विचारों में उलझा है, जबकि भारत आगे बढ़ चुका है.

लेकिन सावधान रहिए — ऐसे बहुत से मुनीर हैं जो धार्मिक भावनाओं को भड़काकर पुराने ज़ख्मों को कुरेदना चाहते हैं.

(हसन सुरूर ‘अनमास्किंग सेक्युलरिज़्म: व्हाय वी नीड अ न्यू हिंदू-मुस्लिम डील’ के लेखक हैं. ऊपर व्यक्त विचार उनके निजी हैं और जरूरी नहीं कि न्‍यूज18ह‍िन्‍दी के विचारों को प्रतिबिंबित करते हों.)

Credits To Live Hindustan

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