भारत-पाकिस्तान तनाव: डर और सोशल मीडिया से आपकी मेंटल हेल्थ हो रही प्रभावित! ये हैं कारण


India and Pakistan Operation Sindoor News: सात साल की हेजल के लिए इस हफ्ते की शुरुआत तक पाकिस्तान सिर्फ एक नाम था. अब दरवाजे पर हर दस्तक के साथ वह सशंकित हो जाती है और किसी आसन्न खतरे के बारे में सोचकर परेशान हो जाती है. अन्नू मैथ्यू को अपनी बेटी हेजल को यह समझाने में मुश्किल हो रही है कि वह केरल के त्रिवेंद्रम में किसी सीधे खतरे की जद में नहीं है.
किस तथ्य पर विश्वास करें और किस पर नहीं?
मैथ्यू ने कहा, ‘‘यह सब तब शुरू हुआ, जब उसके स्कूल में जागरूकता सत्र था और फिर उसने क्लास में अपने दोस्तों से कुछ बातें सुनीं. अब वह चाहती है कि मैं दरवाजा खोलने से पहले सावधान रहूं. वह कहती है कि पाकिस्तान हम पर हमला करेगा और हर कोई मर जाएगा.’’ हेजल अकेली नहीं है. सैकड़ों मील दूर दिल्ली में 36 साल महेंद्र अवस्थी ने कहा कि उन्हें नींद नहीं आती. बच्ची अपने आस-पास की बातचीत से परेशान है, तो युवा सोशल मीडिया का सहारा ले रहे, जिन्हें यह समझ नहीं आ रहा कि किस तथ्य पर विश्वास करें और किस पर नहीं.
शनिवार शाम को पाकिस्तान और भारत के बीच सैन्य टकराव रोकने पर बनी सहमति के बावजूद लोग सहमे हुए हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा है कि दोनों देशों के बीच सैन्य टकराव रोकने पर सहमति बन गई है. राहत की यह भावना जल्द ही नयी चिंता में बदल गई, जब पाकिस्तान के कई सीमावर्ती क्षेत्रों में विस्फोटों और ‘ब्लैकआउट’ के साथ उस समझौते का उल्लंघन करने की खबरें आईं.
तनाव से मेंटल हेल्थ पर पड़ता है बुरा प्रभाव
इसकी शुरुआत छह-सात मई की रात को हुई, जब भारत ने पहलगाम में हुए हमले के प्रतिशोध में पाकिस्तान और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) में आतंकवादी अड्डों के खिलाफ ‘ऑपरेशन सिंदूर’ चलाया. अगले दिनों में, दोनों देशों ने सीमा से लगे प्रमुख शहरों में गोलाबारी की. इन सबका मानसिक स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है.
मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि दोनों देशों के बीच बढ़ता सैन्य तनाव, सूचनाओं की बाढ़, तथा झूठी और सच्ची खबरों में अंतर करने में असमर्थता, व्यक्तियों के मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकती है.
क्लीनिकल मनोवैज्ञानिक श्वेता शर्मा के मुताबिक, संभावित युद्ध की निरंतर चर्चा लोगों में ‘‘प्रतिकूल आघात’’ प्रतिक्रिया को जन्म दे सकती है, यहां तक कि उन लोगों में भी जो संघर्ष क्षेत्रों से दूर रहते हैं. शर्मा ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘लगातार मीडिया कवरेज, सोशल मीडिया और भावनात्मक विषय वस्तु मस्तिष्क के तनाव विनियमन तंत्र को प्रभावित कर सकती है. युद्ध से संबंधित भय अक्सर अनिश्चितता से उत्पन्न होते हैं-यह कितना आगे तक जाएगा, कौन प्रभावित होगा और इसके दीर्घकालिक परिणाम क्या होंगे?’’
लोगों के लिए ये है बहुत ही चिंताजनक स्थिति
सोशल मीडिया और समाचार चैनलों पर खबरों और गलत सूचनाओं के भंवर में डूबे अवस्थी ने कहा कि वह लगातार भय की भावना से भरे हुए हैं, इस हद तक कि वह कभी-कभी अपने दिल की धड़कन को तेजी से धड़कते हुए सुन सकते हैं. उन्होंने कहा, ‘‘मैं सोशल मीडिया पर स्क्रॉल नहीं करना चाहता, लेकिन मुझे लगता है कि मैं कुछ जरूरी खबरों से चूक जाऊंगा. अगर दिल्ली अगला निशाना बन गई, तो मुझे अपने परिवार को सुरक्षित रखने के लिए क्या करना चाहिए, क्या हम कल जागेंगे?’’
सुरक्षित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए, नागरिकों या सैनिकों की पीड़ा को देखना अपराधबोध और बेबसी का भाव पैदा कर सकता है. शर्मा ने कहा, ‘‘युवा दिमाग बहुत जल्दी प्रभावित होते हैं. युद्ध की बातें डर पैदा कर सकती हैं, रूढ़िवादिता को मजबूत कर सकती हैं और उनकी सुरक्षा की भावना को बाधित कर सकती हैं.’’
ऐसे समय में जागरूक रहना है जरूरी
ऐसे समय में जागरूक रहना महत्वपूर्ण है, लेकिन सूचनाओं के लिए विश्वसनीय स्रोतों का चयन करना और निरंतर कवरेज से ब्रेक लेना भी जरूरी है. शर्मा ने कहा कि जब बात बच्चों की आती है, तो उन्हें उम्र के हिसाब से हालात के बारे में समझाना उचित है. उन्होंने कहा, ‘‘उन्हें सुरक्षा का भरोसा दिलाएं और ऑनलाइन प्रसारित हो रही सूचना पर ध्यान देने के बजाय खुली बातचीत के लिए प्रोत्साहित करें.’’
मैथ्यू ने अपनी बेटी को आश्वस्त करने के लिए एक योजना बनाई है. वह हेजल को बालकनी में ले जाती हैं और आसमान की ओर इशारा करते हुए उससे पूछती हैं कि क्या वह कोई विस्फोट या गोलीबारी देख रही है, जिससे वह डरती है. मैथ्यू ने कहा, ‘‘जब वह देखती है कि ऐसी कोई चीज यहां नहीं हो रही है, तो वह शांत हो जाती है.’’ आघात अलग-अलग रूप ले सकता है.
आसन्न युद्ध की आशंका से लगभग अस्वस्थ हो चुके जयपुर निवासी अनिकेत सिंह (बदला हुआ नाम) ने 22 अप्रैल को पहलगाम में हुए हमले के बाद आपात स्थिति की तैयारी शुरू कर दी थी. पहलगाम आतंकी हमले में 26 लोग मारे गए थे, जिसके बाद भारत ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ शुरू किया. अनिकेत सिंह ने तीन महीने का राशन, पूरी तरह चार्ज किए गए पावर बैंक, फ्लैशलाइट, पर्याप्त नकदी और जरूरी दवाइयां जमा कर लीं. फिर भी वह ‘‘बेहद चिंतित’’ और ‘‘बेबस’’ महसूस कर रहे हैं.
सिंह ने कहा, ‘‘मुझे लगता है कि कुछ बड़ा होने वाला है और मैं अपना और अपने परिवार का ख्याल रखने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं हूं. मुझे लगता है कि मैं जो कर रहा हूं, वह शायद काफी नहीं है. मैं वाकई ऐसा महसूस करने से खुद को नहीं रोक सकता.’’
‘ब्लैकआउट’ जैसी घटनाओं से होती है चिंता
युद्ध के खतरे के चलते अज्ञात स्थिति के बारे में चिंतित होना एक बात है, लेकिन किसी भी अप्रिय परिणाम के लिए तैयार रहना भी चिंता का कारण बन सकता है. वरिष्ठ चिकित्सक मैत्री चंद ने कहा कि सायरन, ‘ब्लैकआउट’ अभ्यास और आवश्यक वस्तुओं का भंडारण करने पर ध्यान देना लोगों को तैयार होने का एहसास दिला सकता है और साथ ही चिंता भी पैदा कर सकता है.
चंद ने कहा, ‘‘यह ऐसी रस्सी है, जिस पर चलना मुश्किल है, जहां हमें अपना संतुलन खुद ही बनाना होता है. शांत और संयमित रहना मुश्किल है, खासकर तब जब आपके आस-पास के ज़्यादातर लोग चिंता और डर से प्रेरित उन्मादी माहौल में हों.’’
ऐसी परिस्थितियों में, लोगों को खुद को ‘‘सकारात्मक विचारों’’ के साथ शांत रहने का प्रयास करना चाहिए कि वे इससे बाहर निकल आएंगे और समय आने पर अपने प्रियजनों की देखभाल करने में सक्षम होंगे. चंद ने शांत रहने के लिए लोगों को योग, ध्यान करने की भी सलाह दी.
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