जहाज डूबा… पर कप्तान डटा रहा… कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला की कहानी

Captain Mahendra Nath Mulla Story: 13 दिसंबर 1971 अरब सागर की एक स्याह रात. भारत-पाकिस्तान युद्ध उफान पर था. भारतीय नौसेना का युद्धपोत INS खुकरी दुश्मन की टॉरपीडो का शिकार बन चुका था. सायरन बज रहे थे सैकड़ों जवान अपनी जान बचाने की जद्दोजहद में थे. और वहीं अपने पूरे नेवी ड्रेस में एक सिगार के साथ अपनी कुर्सी पर शांत बैठा था एक भारतीय योद्धा कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला.

उनके पास था बचने का मौका, उनके पास था लाइफ जैकेट. लेकिन उन्होंने कहा — “तुम बचो, मेरी चिंता मत करो.” और फिर जहाज के साथ ही समंदर में समा गए. यह उनका आखिरी कदम था. दरअसल यह इंडियन नेवी की असली परंपरा है. इसका जिक्र हाल में एक पॉडकास्ट में किया गया. इस पॉडकास्ट का वीडियो अब वायरल है.

कैप्टन नहीं, वो थे परंपरा का प्रतीक
भारतीय नौसेना की परंपरा में कहा जाता है — “Captain goes down with the ship.” लेकिन ये सिर्फ अंग्रेजी कहावत नहीं थी. ये कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला के लिए जिम्मेदारी, लीडरशिप और आखिरी सांस तक कर्तव्य निभाने की कसम थी.

INS खुकरी पर उस रात करीब 18 ऑफिसर्स और 176 नौसैनिक मौजूद थे. हमला इतना अचानक था कि ज्यादा कुछ किया नहीं जा सकता था. लेकिन कैप्टन मुल्ला ने सबसे पहले जवानों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी. अपने लिए कोई जगह नहीं बचाई बल्कि खुद का जैकेट तक किसी अन्य नाविक को पहना दिया.

आखिरी सिगार, आखिरी आदेश
जब बाकी सब घबराए थे कैप्टन मुल्ला साहब शांत थे. उन्होंने डूबते जहाज पर आखिरी वक्त में अपनी कुर्सी संभाली, सिगार जलाया, और आदेश दिया, “सबसे पहले जवानों को निकालो.” उनकी यह छवि नेवी ड्रेस में, सिगार के साथ, शांत, संयमित, और अडिग आज भी भारतीय नौसेना के हर ऑफिसर के लिए आदर्श है.

लेकिन मुल्ला एक मिसाल हैं, रहेंगे
कैप्टन महेंद्र नाथ मुल्ला को उनके इस अद्वितीय बलिदान के लिए मरणोपरांत ‘महावीर चक्र’ से नवाजा गया. उनकी कहानी सिर्फ इतिहास नहीं, भारतीय नेवी की आत्मा है. उनकी आखिरी सिगार, उनका ठहरा हुआ चेहरा, और डूबता हुआ INS खुकरी… ये सब कुछ आज भी हमारे गर्व, हमारे संस्कार और हमारी सेनाओं की आत्मा में जिंदा हैं.

बहस आज भी जिंदा है: परंपरा बनाम जान
हाल ही में एक पॉडकास्ट ने इस कहानी को फिर से जिंदा किया है. इस वीडियो ने सोशल मीडिया पर जबरदस्त भावनात्मक लहर पैदा कर दी है. लेकिन इसके साथ ही एक सवाल भी उभरा — क्या परंपरा के नाम पर एक अनुभवी योद्धा की जान देना जरूरी था?

आज जब युद्ध की परिभाषा बदल रही है तकनीक नए नेतृत्व की मांग कर रही है क्या आज के दौड़ में लीडर का जीवित रहना अधिक जरूरी नहीं ताकि वो आगे की रणनीति बना सके? क्या आज के जमाने में “कप्तान जहाज के साथ डूबे” वाली परंपरा को दोबारा सोचने का वक्त नहीं आ गया?

Credits To Live Hindustan

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